फिल्में और अन्य मनोरंजन (संस्मरण) – भाग 1

दिसम्बर 2, 2005 को 10:26 अपराह्न | Uncategorized में प्रकाशित किया गया | 3 टिप्पणियां

अभी-अभी टीवी पर ‘घायल'(सनी देओल) फिल्म देखी तो याद आया कि इस बार की ‘अनुगूँज’ का विषय याद आया। मन तो था पर समय की कमी और फिल्मों में अब कोई खास रुचि
नहीं होने के कारण मैं कुछ लिख नहीं पाया। हां- तो अतीत के पन्ने पलटने पर पता चला कि मैंने पहली बार जो फिल्म देखी थी वह शायद थी – ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’
, बहुत छोटा था मैं उस समय और माता पिताजी के साथ वह फिल्म छविगृह में देखी थी। फिर भी मुझे कुछ ‘खिड़की ‘ के गाने वाला एक सीन याद है। उसके बाद फिल्में
दूरदर्शन पर ही देखें बहुत दिनों तक। अलग अलग समय पर अलग अलग वज़हें थीं फिल्में देखने की। तो शुरुआत करते हैं 1980 के आस पास की बातों से। उस ज़माने में रंगीन टीवी नहीं होते थे। । अपने पड़ोसी गुप्ता जी के यहां मुहल्ले में पहला टीवी आया
था। रविवार की शाम को गुप्ता जी के यहाँ मुहल्ले के सारे बच्चे और बड़े इकट्ठा होते और फिल्म का आनन्द लेते। फिल्मों के बहाने जो सामाजिक सामंजस्य और मेल-मिलाप होता , वह देखते ही बनता था। अब ऐसा शायद ही कहीं देखने को मिले।हम सब बालक और बालिकाएं एक साथ ज़मीन पर चादर आदि बिछाकर बैठते तो बड़े लोग कुर्सियों पर। जिस बालक को अपनी पसन्द की बालिका के पास बैठने को मिल जाता वह तो प्रसन्न ही हो जाता। कुछ ‘खास’ बालिकाएँ आतीं तो बालक समाज में खुशी की लहर दौड़ जाती। जी हां- मैं बचपन की ही बात कर रहा हूं – जब हम सब 8-10 वर्ष के ही थे । शुरुआती फिल्मों में ‘झुक गया आसमान’, अभिमान
, ‘डाकू रानी गंगा’ , ‘डा. कोटनीस की अमर कहानी’ – इत्यादि देखी थीं। फिर श्रीवास्तव जी के यहां भी टीवी आया और फिर जिन लोगों की गुप्ता जी से ज़्यादा नहीं बनती ठीक वे श्रीवास्तव जी के यहाँ जाने लगे- याने कि दर्शक समाज में ध्रुवीकरण हो गया। देखिये फिल्मों से सोशल डायनमिक्स कैसे बदलती है!
अन्य फिल्मों में ,जिनके नाम याद हैं, वे हैं – आंखें, शोले, विक्टोरिया नम्बर 203, दो और दो पांच , हमजोली, एराउंड द वर्ल्ड इन 8 डालर्स(राजकपूर) , मिली, ज़ंज़ीर , आनन्द आदि। शुरुआती दौर में पसन्दीदा पुरुष नायक थे – अमिताभ (ईश्वर आपको लम्बी उमर दे), मिथुन और शत्रुघन सिन्हा। नायिकाओं में ज़ीनत अमान, बिन्दु, शर्मिला टैगोर, हेमा
मालिनी, सारिका, हेलेन, जयप्रदा प्रिय थीं। हास्य चरित्रों में केस्टो मुखर्जी,मुकरी, जगदीप, असरानी, जॉनी वाकर आदि अच्छे लगते थे । विलेन्स में प्राण, प्रेम चोपड़ा,
, गब्बर (क्षमा कीजिये अमज़द खान) थे । अमोल पालेकर की फिल्में अ लग ही थीं, और उनका चरित्र आम आदमी के नज़दीक था जिसमें अलग ही आनन्द था।
रविवार को कौन सी फिल्म आएगी- इस बारे में जो भी पहले बताता – वह उस हफ्ते का हीरो हो जाता- कक्षा में कुछ लड़के क्लेम करते कि उनके एक भाई ,चाचा ,
इत्यादि दिल्ली दूरदर्शन में हैं और उन्हें सब पहले पता चल जाता है । होता यहाँ था कि उनके यहां दिल्ली का अंग्रेज़ी का ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अखबार आता था – जिसमें
एक दो दिन पहले ही आने वाली फिल्म का नाम आ जाता था। जाने क्यों हम सबके ‘अंडरप्रिविलेज्ड’ लखनऊ के दैनिक यह ‘खबर’ नहीं छापते थे। लखनऊ के लोगों ने ‘आपकी डाक’ को जाने कितने पत्र लिखे कि वे रविवार की फिल्म का नाम क्यों नहीं बताते पर लखनऊ दूरदर्शन ने रहस्य को रहस्य रहने देना उचित समझा।
इस बीच छविगृह मे एक और फिल्म देखी- ‘राम अवतार'( राजेश खन्ना) । छोटा था मैं , पर फिल्म का संदेश समझ गया था जो कि बहुत अच्छा भी था – मां बाप की सेवा करना।

खैर !

टीवी के अलावा फिल्में स्कूलों में भी दिखाई जाती थीं – 15 अगस्त , 26 जनवरी और 2 अक्टूबर को। इनमें से ज़्यादातर फिल्में मनोज कुमार की होती थीं –
देशभक्ति वाली- जैसे ‘पूरब और पश्चिम’ । उस ज़माने में वीडियो (वीसीआर) का प्रचलन नहीं था- प्रोजेक्टर द्वारा एक सफेद चादर पर रात में फिल्म दिखाई जाती, खुले आकाश के नीचे। सारी जनता एक साथ आनन्द लेती फिल्म का। वाक़ई त्योहारों में जो रस था उस समय -वह आपसी भाईचारे का था- फिल्में उसमें खासा योगदान देतीं।

फिर आया वीडियो याने वीसीआर । इसने मुहल्ले में एक नई लहर पैदा कर दी।

(क्रमशः)

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